
पहला राजगढयहां स्टेशन से गोल मार्केट तक का तीन रुपए में तांगे के सफर में मजा आता था। बाद में यह किराया पांच रुपए हो गया। तांगे चार-पांच से घटकर एक ही रह गया। और 2008 आते आते तांगे खत्म हो गए। इनकी जगह ऑटो ने ले ली है, बेशक ये जल्दी पहुंचा देते हैं। पर जो मजा तांगे में आता था वह ऑटो में नहीं।
तांगे वाली दूसरी जगह थी मंडावरयहां के बस स्टैंड से हमारे पैतृक गांव गढ हिम्मतसिंह तक का तीन किलोमीटर का सफर तांगे में करने में मजा आता था। कई बार तो रास्ते में एक ढलान वाली जगह पानी भरे होने से तांगे को पार करने में मजा आता था। मुझे मेरे बडे भैया बताते हैं कि जब मां के साथ जन्म के बाद जब मैंने पहली बार सफर किया तो वह भी तांगे में किया। बचपन में उन्होंने कई बार कहा कि मम्मी तुम्हे तांगे में अस्पताल से लाई।
तीसरी जगह थी श्रीमहावीरजीमैं दीपावली के अगले दिन कई साल बाद जब जैन तीर्थ क्षेत्र श्रीमहावीरजी गया तो मुझे वहां मंदिर के बाहर एक तांगा देखकर सुकून पहुंचा। यहां तांगा अभी भी मौजूद है। हां बस इसका कारण दूसरा है। तीर्थ यात्री बडे बडे शहरों से बडी गाडियों में आते है तो वे अपने बच्चों का जी बहलाने के लिए गाडी छोड तांगे में सफर करते है। खैर इससे तांगेवाले की रोजी रोटी भी चल रही है और मुझे ब्लॉग के लिए तांगे का फोटो मिल गया वर्ना मैं कब से सोच रहा था तांगे पर लिखने के लिए।