दोस्तों सभी को क्रिसमस मुबारक हो, दुआ करता हू की ये क्रिसमस आप सभी की जिंदगी में अपार खुशिया लाये , आज काफी दिनों बाद लिखने का मौका मिला है आजकल थोडा व्यस्त रहता हु क्या करे कम ही इतना होता है की वक़्त ही नहीं मिल पाता
राजगढ़ गए हुए भी काफी दिन हो गए और अब तो लगता है की नए साल में ही जा पाऊंगा, राजगढ़ की तो कोई खबर है नहीं अभी मेरे पास अगर होगी तो आपको जरूर बताऊंगा, दोस्तों अभी मैंने एक नया ब्लॉग बनाया है http://hansodilse.blogspot.com/ जिसमे मैं अपने बचपन के शौक को आगे बढ़ा रहा हू यहाँ मैं अपनी कविताएं आपके साथ शेयर कर रहा हू , अगर वक़्त मिले तो मेरे ब्लॉग पर आये और मेरी कविताओ का आनंद उठाये, दोस्तों नया साल आ रहा है और आप सभी ने नया साल मानाने की तैयारी कर ली होगी और जिन्होंने नहीं की है वो शायद कर लेंगे, दोस्तों धूम धाम से नए साल का स्वागत करे, आप सभी को मेरी और से नए साल की लख लख बधाईया, अब काफी देर हो चुकी है और मुझे नींद भी आ रही है आखिर २:३० बज गए है तो दोस्तों फिर मिलते है चलते चलते, क्रिसमस और नए साल की फिर से शुभकामनाये l
Friday, December 25, 2009
Saturday, November 14, 2009
यार पांच आदमी आएंगे तब फिल्म चलाएगा
गुरुवार को बारिश का मौसम था और अपन राजगढ़ में थे, घर पर सीआईडी (सोनी का टीवी शो, आजकल अपना फेवरेट शो) देख रहा था। तब ही राजीव जैन (मेरा हमनाम दोस्त) का फोन आया, यार टाकिज तक आ जाओ, फिल्म देखेंगे। मैंने कहा राजगढ़ में फिल्म यार क्यूं मजाक कर रहा है। बोला टिकट ले लिए हैं, आ जा। मैं घर पर बिना बोले नवरंग टाकिज तक चला गया। वहां देखा तो बारिश के कारण लोग नदारद, हम सिर्फ तीन जने। दोस्तों ने बताया कि पांच लोग होने की शर्त पर ही यह फिल्म चलाएगा। काफी दिन हो गए थे राजगढ़ के टाकिज में फिल्म देखे अंदर पहुंचे और यूं समçझए हमारे लिए स्पेशल शो चल रहा था। बस नीचे जनरल में कुछ बीस- पच्चीस लोग और आ गए थे। फिल्म थी अक्षय- कैटरीना अभिनीत ब्लू।लोग कम थे इसलिए भाई ने बिना इंटरवेल के सवा छह बजे शुरू हुई फिल्म को साढ़े आठ बजे खत्म। खैर फिल्म की कहानी फिर कभी। पर अपन को कम से कम पांच आदमियों के साथ आने पर फिल्म दिखाने वाला आइडिया ठीक वैसे ही लगा जैसे लापतागंज (सब टीवी का सीरियल) के थिएटर में फिल्म देख रहे हों।
Saturday, October 24, 2009
अब तांगे नहीं दिखते
अब अपने राजगढ से तांगे (घोडागाडी) गायब हो गए हैं। उनकी जगह ऑटो ने ले ली है। यूं तो समय के साथ बदलाव जरूरी है, पर परिवहन का पुराना साधन गायब हो गया है। यह सोचकर दुख होता है। मुझे याद है बचपन में तीन जगह तांगे दिखाई देते थे।
पहला राजगढयहां स्टेशन से गोल मार्केट तक का तीन रुपए में तांगे के सफर में मजा आता था। बाद में यह किराया पांच रुपए हो गया। तांगे चार-पांच से घटकर एक ही रह गया। और 2008 आते आते तांगे खत्म हो गए। इनकी जगह ऑटो ने ले ली है, बेशक ये जल्दी पहुंचा देते हैं। पर जो मजा तांगे में आता था वह ऑटो में नहीं।
तांगे वाली दूसरी जगह थी मंडावरयहां के बस स्टैंड से हमारे पैतृक गांव गढ हिम्मतसिंह तक का तीन किलोमीटर का सफर तांगे में करने में मजा आता था। कई बार तो रास्ते में एक ढलान वाली जगह पानी भरे होने से तांगे को पार करने में मजा आता था। मुझे मेरे बडे भैया बताते हैं कि जब मां के साथ जन्म के बाद जब मैंने पहली बार सफर किया तो वह भी तांगे में किया। बचपन में उन्होंने कई बार कहा कि मम्मी तुम्हे तांगे में अस्पताल से लाई।
तीसरी जगह थी श्रीमहावीरजीमैं दीपावली के अगले दिन कई साल बाद जब जैन तीर्थ क्षेत्र श्रीमहावीरजी गया तो मुझे वहां मंदिर के बाहर एक तांगा देखकर सुकून पहुंचा। यहां तांगा अभी भी मौजूद है। हां बस इसका कारण दूसरा है। तीर्थ यात्री बडे बडे शहरों से बडी गाडियों में आते है तो वे अपने बच्चों का जी बहलाने के लिए गाडी छोड तांगे में सफर करते है। खैर इससे तांगेवाले की रोजी रोटी भी चल रही है और मुझे ब्लॉग के लिए तांगे का फोटो मिल गया वर्ना मैं कब से सोच रहा था तांगे पर लिखने के लिए।
पहला राजगढयहां स्टेशन से गोल मार्केट तक का तीन रुपए में तांगे के सफर में मजा आता था। बाद में यह किराया पांच रुपए हो गया। तांगे चार-पांच से घटकर एक ही रह गया। और 2008 आते आते तांगे खत्म हो गए। इनकी जगह ऑटो ने ले ली है, बेशक ये जल्दी पहुंचा देते हैं। पर जो मजा तांगे में आता था वह ऑटो में नहीं।
तांगे वाली दूसरी जगह थी मंडावरयहां के बस स्टैंड से हमारे पैतृक गांव गढ हिम्मतसिंह तक का तीन किलोमीटर का सफर तांगे में करने में मजा आता था। कई बार तो रास्ते में एक ढलान वाली जगह पानी भरे होने से तांगे को पार करने में मजा आता था। मुझे मेरे बडे भैया बताते हैं कि जब मां के साथ जन्म के बाद जब मैंने पहली बार सफर किया तो वह भी तांगे में किया। बचपन में उन्होंने कई बार कहा कि मम्मी तुम्हे तांगे में अस्पताल से लाई।
तीसरी जगह थी श्रीमहावीरजीमैं दीपावली के अगले दिन कई साल बाद जब जैन तीर्थ क्षेत्र श्रीमहावीरजी गया तो मुझे वहां मंदिर के बाहर एक तांगा देखकर सुकून पहुंचा। यहां तांगा अभी भी मौजूद है। हां बस इसका कारण दूसरा है। तीर्थ यात्री बडे बडे शहरों से बडी गाडियों में आते है तो वे अपने बच्चों का जी बहलाने के लिए गाडी छोड तांगे में सफर करते है। खैर इससे तांगेवाले की रोजी रोटी भी चल रही है और मुझे ब्लॉग के लिए तांगे का फोटो मिल गया वर्ना मैं कब से सोच रहा था तांगे पर लिखने के लिए।
Thursday, October 8, 2009
एक और राजगढ भी है
राजगढ नाम ही ऐसा है। सभी जानते है कि अपने अलवर जिले के राजगढ के अलावा राजस्थान के ही चूरू जिले में भी एक राजगढ है। एक मध्यप्रदेश में और एक हिमाचल में ही।
पर ये राजगढ वो है, जिसके बारे में हमने न तो सुना न ही कभी पढा। चूरू वाले राजगढ का किस्सा जब पढते थे तो हर साल सुनते थे। कभी बोर्ड की मार्कशीट दूसरे राजगढ में चली जाती तो कभी दूसरे राजगढ की यहां आ जाती।
पर हाल ही में मैं भीलवाडा के पास ही एक जैन तीर्थक्षेत्र चंवलेश्वर पार्श्वनाथ गया। रास्ते में एक और छोटा सा गांव दिखा। मैंने कार से बाहर देखा तो एक झोंपडीनुमा पोस्ट आफिस पर राजगढ का बोर्ड लगा था।
मैंने मोबाइल निकालकर गांव में कार देखकर दौडे बच्चों और पोस्ट आफिस की तस्वीर ली और आगे वहां से निकल लिए।
पर मुझे इस बात का बडा अचरज हुआ कि राजस्थान में ही यह तीसरा राजगढ भी है। आपको भी किसी और राजगढ की जानकारी हो तो जरूर बताइएगा।
पर ये राजगढ वो है, जिसके बारे में हमने न तो सुना न ही कभी पढा। चूरू वाले राजगढ का किस्सा जब पढते थे तो हर साल सुनते थे। कभी बोर्ड की मार्कशीट दूसरे राजगढ में चली जाती तो कभी दूसरे राजगढ की यहां आ जाती।
पर हाल ही में मैं भीलवाडा के पास ही एक जैन तीर्थक्षेत्र चंवलेश्वर पार्श्वनाथ गया। रास्ते में एक और छोटा सा गांव दिखा। मैंने कार से बाहर देखा तो एक झोंपडीनुमा पोस्ट आफिस पर राजगढ का बोर्ड लगा था।
मैंने मोबाइल निकालकर गांव में कार देखकर दौडे बच्चों और पोस्ट आफिस की तस्वीर ली और आगे वहां से निकल लिए।
पर मुझे इस बात का बडा अचरज हुआ कि राजस्थान में ही यह तीसरा राजगढ भी है। आपको भी किसी और राजगढ की जानकारी हो तो जरूर बताइएगा।
Friday, October 2, 2009
अपना प्यारा राजगढ़
नमस्कार दोस्तों आज पहली बार इस ब्लॉग पर मैं कुछ लिखने जा रहा हु. लेकिन लिखने से पहले मैं अपने बारे में कुछ बता देना चाहता हु, मेरा नाम कुलदीप सैनी है मैं सराय मोहल्ले में रहता हु फिलहाल मैं जयपुर में रह रहा हु और यहाँ से एनीमेशन का कोर्से कर रहा हु ,
जब मुझे पता चला की राजगढ़ का कोई ब्लॉग है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई और मैंने तुंरत इन्टरनेट पर इसे खोल कर देखा और इसे ज्वाइन कर लिया इस ब्लॉग के लिए मैं राजीव जी को तहे दिल से धन्यवाद देना चाहता हु ,
मैं राजगढ़ का रहने वाला हूँ , राजगढ़ मेरी जन्मभूमि है और मैं इससे बहुत प्यार करता हूँ और मैं ही क्या वो हर व्यक्ति जो राजगढ़ का निवासी है वो राजगढ़ से बहुत प्यार करता है और करे भी क्यों नहीं ये है ही इतना सुन्दर , चारो और से पहाडियों से घिरा हुआ बाग़, बावडिया मंदिर झरने और बहुत से मनोहर द्रश्य जिन्हें देखकर मन आनंदित हो जाता है
मुझे भी राजगढ़ की बहुत याद आती है जब कभी भी मैं घर जाता हूँ तो वह से आने का दिल ही नहीं करता मगर मजबूरी है की आना पड़ता है अब तो मैं दिवाली पर राजगढ़ जाऊँगा. अपने पुराने दोस्तों से मिलूँगा कुछ दोस्त तो वही राजगढ़ में ही रहते है और कुछ जो बाहर रहते है वो भी दिवाली पर घर आयेंगे, दोस्तों से मिलेंगे घूमेंगे , फिरेंगे , गप्पे लड़ायेंगे , तो दोस्तों मिलते है दिवाली पर अपने प्यारे शहर राजगढ़ में तब तक के लिए अलविदा, हैप्पी दिवाली
जब मुझे पता चला की राजगढ़ का कोई ब्लॉग है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई और मैंने तुंरत इन्टरनेट पर इसे खोल कर देखा और इसे ज्वाइन कर लिया इस ब्लॉग के लिए मैं राजीव जी को तहे दिल से धन्यवाद देना चाहता हु ,
मैं राजगढ़ का रहने वाला हूँ , राजगढ़ मेरी जन्मभूमि है और मैं इससे बहुत प्यार करता हूँ और मैं ही क्या वो हर व्यक्ति जो राजगढ़ का निवासी है वो राजगढ़ से बहुत प्यार करता है और करे भी क्यों नहीं ये है ही इतना सुन्दर , चारो और से पहाडियों से घिरा हुआ बाग़, बावडिया मंदिर झरने और बहुत से मनोहर द्रश्य जिन्हें देखकर मन आनंदित हो जाता है
मुझे भी राजगढ़ की बहुत याद आती है जब कभी भी मैं घर जाता हूँ तो वह से आने का दिल ही नहीं करता मगर मजबूरी है की आना पड़ता है अब तो मैं दिवाली पर राजगढ़ जाऊँगा. अपने पुराने दोस्तों से मिलूँगा कुछ दोस्त तो वही राजगढ़ में ही रहते है और कुछ जो बाहर रहते है वो भी दिवाली पर घर आयेंगे, दोस्तों से मिलेंगे घूमेंगे , फिरेंगे , गप्पे लड़ायेंगे , तो दोस्तों मिलते है दिवाली पर अपने प्यारे शहर राजगढ़ में तब तक के लिए अलविदा, हैप्पी दिवाली
Sunday, June 7, 2009
Saturday, May 23, 2009
याद आते हैं ये शिक्षक
गुरुर बह्रमा गुरुर विष्णु ...........
राजगढ़ की कोई भी बात अपने गुरुजनों की बात किये बिना आगे नहीं बढ़ पायेगी। नर्सरी से लेकर बी.कॉम तक के सफर मे जाने कितने शिक्षकों से अ -आ - ई से लेकर जिंदगी की कड़ी सचाई का सामना करने कि शिक्षा मिली। घर की प्रथम पाठशाला में माँ ही प्रथम शिक्षक थी, घर के बाहर न्यू मॉडर्न स्कूल मे अवस्थी सर और दुब्बे मैडम के रूप मे प्रथम विधालय शिक्षक से सम्पर्क हुआ था। बहुत अच्छी तरह याद है कि बिना टॉफी के स्कूल तो जाना ही नहीं होता था। पहले टॉफी और फिर स्कूल।
खैर , ये सौभाग्य रहा कि हर क्लास मे राजगढ़ के बढ़िया गुरुओं का सान्निध्य प्राप्त हुआ। पांचवीं क्लास के बाद से कॉलेज तक का अध्यापन सरकारी विद्यालय - कॉलेज से ही हुआ। घर से बाहर जब पहली बार स्कूल के लिया कदम निकला तो अवस्थी सर के अनुशासन और दुब्बे मैडम के स्नेह वात्सल्य प्रेम से नींव डली । नंबर तीन स्कूल में सतीश सर ने उसे सीचने क्या काम किया। यही कौशल सर ने भी बहुत सहारा दिया जहाँ टयूश्न पड़ने जाते थे। एक घंटे कि जगह दो घंटे और सन्डे को कम से कम तीन घंटे पढाया करते थे। नंबर तीन स्कूल में उस समय के हेडमास्टर प्रहलाद राय जी थे, आपको शिक्षा के क्षे. मे राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। आगे सीनियर सैकंडरी स्कूल में आये तो जयदेव मुखर्जी प्रिंसिपल थे । आप भी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं, जिनके सान्निध्य में कुछ समय रहने क्या मौका मिला। यहाँ सहल सर और वशिष्ठजी सर ने अंग्रेजी सुधारने मे बहुत मेहनत की।
वैसे कॉलेज में कहते है सब अपने मन के मालिक है, पर यहाँ भी कुछ अच्छे गुरु मिले। अकाउन्ट्स के विष्णु गुप्ता सर, जिनके पढाने की स्टाइल ऐसी थी कि अकाउन्ट्स जैसा विषय बड़ा आसन लगता था और न उनकी कभी हमको छोड़ने की इच्छा होती थी और न हमारी उनको छोड़ने की। यहाँ वैद सर भी थे जिनसे यदि हम कभी पड़ना नहीं चाहते थे तो भी पूरे कॉलेज मे वो हमहो ढूँढ ही लेते थे और जहाँ हम पकड़ में आए वहीं क्लास चालू चाहे वो कॉलेज की छत हो साइंस लैब या बाहर एक चाय की दुकान ।
यहाँ मैं गजानंद सर को भी कभी नहीं भूल सकता। स्काउट वाले गजानंद सर .. एक स्काउट के रूप मे खुद को कई तरह से विकसित कर पाए। चूल्हे पर खाना बनाना। कैंप को सजाना रात को कैंप मे पहरा देना, न भूलने वाले दिन है वो . सतीश सर ने स्काउट मे शामिल होने के लिये पापा को तैयार किया था और गजानंद सर ने इस स्काउट को राष्ट्रपति स्काउट बना दिया। धन्यवाद सर ,
यहाँ मुझको अपने पापा और ताउजी के रूप में दो ऐसे शिक्षक भी मिले, जिन्होने तर्क, दर्शन और सामाजिक परम्पराओं को समय के साथ देखने का नजरिया और समय के साथ संघर्ष की ताकत दी।
जब मैं अपने शिक्षक याद कर रहा हूँ तो हेडमास्टर प्रहलादराय जी का "बेटी" , लक्ष्मीनारायण सर की "अल्प बचत योजना" ,पीटीआई यादव सर का "ए लड़के ", टूशन के लिये प्रसिद्ध प्रेमप्रकाशजी सिद्ध - "पृथ्वी गोल है घूमकर एक ही जगह आती है " और याद है दीनदयाल जी " तुम पढ़ने कोई आते हो मेरी .... देखने आते हो " के तकिया कलाम भी याद आते हैं।
यहाँ एक शिक्षक को भी याद करना जरूरी है " आजाद हिंद सेना " आठ साल के इस सफर में न जाने कितना कुछ सीखा। एक एक पैसा जोड़कर काफी काम किए। उस समय राजगढ़ में हमारी ये सेना राजगढ़ का सबसे ज्यादा सक्रिय संगठन हो गया था . ( आजाद हिंद सेना पर जल्द ही आ रहा हूं )
आज भी जब इनमे से बहुत से गुरुओ से मुलाकात होती है, तो उनका सान्निध्य आज भी ताकत और प्रेरणा देता हैं
राजगढ़ की कोई भी बात अपने गुरुजनों की बात किये बिना आगे नहीं बढ़ पायेगी। नर्सरी से लेकर बी.कॉम तक के सफर मे जाने कितने शिक्षकों से अ -आ - ई से लेकर जिंदगी की कड़ी सचाई का सामना करने कि शिक्षा मिली। घर की प्रथम पाठशाला में माँ ही प्रथम शिक्षक थी, घर के बाहर न्यू मॉडर्न स्कूल मे अवस्थी सर और दुब्बे मैडम के रूप मे प्रथम विधालय शिक्षक से सम्पर्क हुआ था। बहुत अच्छी तरह याद है कि बिना टॉफी के स्कूल तो जाना ही नहीं होता था। पहले टॉफी और फिर स्कूल।
खैर , ये सौभाग्य रहा कि हर क्लास मे राजगढ़ के बढ़िया गुरुओं का सान्निध्य प्राप्त हुआ। पांचवीं क्लास के बाद से कॉलेज तक का अध्यापन सरकारी विद्यालय - कॉलेज से ही हुआ। घर से बाहर जब पहली बार स्कूल के लिया कदम निकला तो अवस्थी सर के अनुशासन और दुब्बे मैडम के स्नेह वात्सल्य प्रेम से नींव डली । नंबर तीन स्कूल में सतीश सर ने उसे सीचने क्या काम किया। यही कौशल सर ने भी बहुत सहारा दिया जहाँ टयूश्न पड़ने जाते थे। एक घंटे कि जगह दो घंटे और सन्डे को कम से कम तीन घंटे पढाया करते थे। नंबर तीन स्कूल में उस समय के हेडमास्टर प्रहलाद राय जी थे, आपको शिक्षा के क्षे. मे राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। आगे सीनियर सैकंडरी स्कूल में आये तो जयदेव मुखर्जी प्रिंसिपल थे । आप भी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं, जिनके सान्निध्य में कुछ समय रहने क्या मौका मिला। यहाँ सहल सर और वशिष्ठजी सर ने अंग्रेजी सुधारने मे बहुत मेहनत की।
वैसे कॉलेज में कहते है सब अपने मन के मालिक है, पर यहाँ भी कुछ अच्छे गुरु मिले। अकाउन्ट्स के विष्णु गुप्ता सर, जिनके पढाने की स्टाइल ऐसी थी कि अकाउन्ट्स जैसा विषय बड़ा आसन लगता था और न उनकी कभी हमको छोड़ने की इच्छा होती थी और न हमारी उनको छोड़ने की। यहाँ वैद सर भी थे जिनसे यदि हम कभी पड़ना नहीं चाहते थे तो भी पूरे कॉलेज मे वो हमहो ढूँढ ही लेते थे और जहाँ हम पकड़ में आए वहीं क्लास चालू चाहे वो कॉलेज की छत हो साइंस लैब या बाहर एक चाय की दुकान ।
यहाँ मैं गजानंद सर को भी कभी नहीं भूल सकता। स्काउट वाले गजानंद सर .. एक स्काउट के रूप मे खुद को कई तरह से विकसित कर पाए। चूल्हे पर खाना बनाना। कैंप को सजाना रात को कैंप मे पहरा देना, न भूलने वाले दिन है वो . सतीश सर ने स्काउट मे शामिल होने के लिये पापा को तैयार किया था और गजानंद सर ने इस स्काउट को राष्ट्रपति स्काउट बना दिया। धन्यवाद सर ,
यहाँ मुझको अपने पापा और ताउजी के रूप में दो ऐसे शिक्षक भी मिले, जिन्होने तर्क, दर्शन और सामाजिक परम्पराओं को समय के साथ देखने का नजरिया और समय के साथ संघर्ष की ताकत दी।
जब मैं अपने शिक्षक याद कर रहा हूँ तो हेडमास्टर प्रहलादराय जी का "बेटी" , लक्ष्मीनारायण सर की "अल्प बचत योजना" ,पीटीआई यादव सर का "ए लड़के ", टूशन के लिये प्रसिद्ध प्रेमप्रकाशजी सिद्ध - "पृथ्वी गोल है घूमकर एक ही जगह आती है " और याद है दीनदयाल जी " तुम पढ़ने कोई आते हो मेरी .... देखने आते हो " के तकिया कलाम भी याद आते हैं।
यहाँ एक शिक्षक को भी याद करना जरूरी है " आजाद हिंद सेना " आठ साल के इस सफर में न जाने कितना कुछ सीखा। एक एक पैसा जोड़कर काफी काम किए। उस समय राजगढ़ में हमारी ये सेना राजगढ़ का सबसे ज्यादा सक्रिय संगठन हो गया था . ( आजाद हिंद सेना पर जल्द ही आ रहा हूं )
आज भी जब इनमे से बहुत से गुरुओ से मुलाकात होती है, तो उनका सान्निध्य आज भी ताकत और प्रेरणा देता हैं
Friday, May 22, 2009
राजगढ़ में खान पान
बहुत दिनों से इस ब्लॉग पर कोई हलचल नही हुई तो सोचा कुछ लिखू, फिलहाल दक्षिण भारत में हु तो अपने जैसे खाने की तो दिक्कत रहती ही है, सो उसी खान पान को याद कर रहा हु,
बचपन से ही हम सब दोस्तों को बाहर थोड़ा बहुत खाने की आदत रही है, बचपन में जब नम्बर ३ स्कूल में थे (क्लास 6-8) तो बाहर मूला की चाट खाया करते थे, अब तो शायद नही आता हो वो बंदा (मुझे पक्का पता नही)। वो बहुत फेमस चाट वाला था उस समय, १६-१७ साल हो गए हा इन बातो को।
गोल गप्पे शायद सब लोगो को पसंद हो, गोल चक्कर पर एक ठेले वाला था नाम याद नही आ रहा शायद कोई दोस्त लोग बताएगा, वैसे और भी गोल गप्प्पे वाले लोग थे जैसे की एक बंदा अभी भी सिनेमा हॉल के रस्ते पैर बैठता है उसके यहाँ भी गोलगप्पे विद फूकनी (pipe) पुरानी सीनियर स्कूल के नीचे भी एक आलू टिक्की वाला होता था, वो भी मस्त चाट बनता था हर बार उसको बोलते थे की भैया हरी मिर्ची और प्याज ज्यादा, फ़िर मिर्ची लगने पर एक मीठी पपडी,
गोल चक्कर पर बहुत सारे हलवाई है, वह पर सबसे ज्यादा लोग कचोरी, दही की पकोड़ी एवं बल्ले खाने आया करते है जो शायद अब भी जारी हो|
चाँद पोला की पकोड़ी भी मस्त होती थी लहसुन की चटनी के साथ। अब तो उसने परमानेंट दूकान खोल ली है|
आजाद कुल्फी वाला यह तो हर कोई जानता होगा, अब तो उसके बेटे वो ठेली चलते है लेकिन अभी भी वो ही ठंडक, मिठास बरकरार है, जब कभी भी घर जाते है तो शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब दोस्त लोगो के साथ कुल्फी न खाई हो|
गन्ने का रस पहले बावडी पर पिया करते थे बाद में उसकी क्वालिटी ख़राब हो गई तो फ़िर सब्जी मंडी पर पिया करते थे , फिलहाल माचाडी चौक बस स्टैंड पर सबसे अच्छा मिलता है |
लस्सी पहले गोल चक्कर बहुत लस्सी वालो के पीया करते थे लेकिन आजकल श्री हलवाई के यहाँ सबसे सही मिलती है,
वैसे सब लोगो की अपनी अपनी पसंद है, और भी बहुत सारी चीजे खाने की मिलती है| हो सकता है की कुछ का जिक्र बाकी रहा गया हो तो पाठक लोग कमेंट्स में जोड़ देंगे|
गौरव कुमार
बचपन से ही हम सब दोस्तों को बाहर थोड़ा बहुत खाने की आदत रही है, बचपन में जब नम्बर ३ स्कूल में थे (क्लास 6-8) तो बाहर मूला की चाट खाया करते थे, अब तो शायद नही आता हो वो बंदा (मुझे पक्का पता नही)। वो बहुत फेमस चाट वाला था उस समय, १६-१७ साल हो गए हा इन बातो को।
गोल गप्पे शायद सब लोगो को पसंद हो, गोल चक्कर पर एक ठेले वाला था नाम याद नही आ रहा शायद कोई दोस्त लोग बताएगा, वैसे और भी गोल गप्प्पे वाले लोग थे जैसे की एक बंदा अभी भी सिनेमा हॉल के रस्ते पैर बैठता है उसके यहाँ भी गोलगप्पे विद फूकनी (pipe) पुरानी सीनियर स्कूल के नीचे भी एक आलू टिक्की वाला होता था, वो भी मस्त चाट बनता था हर बार उसको बोलते थे की भैया हरी मिर्ची और प्याज ज्यादा, फ़िर मिर्ची लगने पर एक मीठी पपडी,
गोल चक्कर पर बहुत सारे हलवाई है, वह पर सबसे ज्यादा लोग कचोरी, दही की पकोड़ी एवं बल्ले खाने आया करते है जो शायद अब भी जारी हो|
चाँद पोला की पकोड़ी भी मस्त होती थी लहसुन की चटनी के साथ। अब तो उसने परमानेंट दूकान खोल ली है|
आजाद कुल्फी वाला यह तो हर कोई जानता होगा, अब तो उसके बेटे वो ठेली चलते है लेकिन अभी भी वो ही ठंडक, मिठास बरकरार है, जब कभी भी घर जाते है तो शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब दोस्त लोगो के साथ कुल्फी न खाई हो|
गन्ने का रस पहले बावडी पर पिया करते थे बाद में उसकी क्वालिटी ख़राब हो गई तो फ़िर सब्जी मंडी पर पिया करते थे , फिलहाल माचाडी चौक बस स्टैंड पर सबसे अच्छा मिलता है |
लस्सी पहले गोल चक्कर बहुत लस्सी वालो के पीया करते थे लेकिन आजकल श्री हलवाई के यहाँ सबसे सही मिलती है,
वैसे सब लोगो की अपनी अपनी पसंद है, और भी बहुत सारी चीजे खाने की मिलती है| हो सकता है की कुछ का जिक्र बाकी रहा गया हो तो पाठक लोग कमेंट्स में जोड़ देंगे|
गौरव कुमार
Tuesday, May 12, 2009
राजगढ़ में गली क्रिकेट
मै राजगढ़ से १९९७ से बाहर निकला हुआ हू | एकमात्र खेल जो हमने बचपन से खेला है वो है क्रिकेट | ऐसी ऐसी जगह खेलते थे जहा घरवाले मन करते थे, लेकिन कही और खेलने की जगह भी नहीं होती थी | जो बड़ी फील्ड थी वो उस समय हमें दूर लगती थी सो पास मै जो जगह थी वही खेल लिया करते थे |
उनमे से एक जगह थी 'खाई' | मेरे ख़याल से जो लोग राजगढ़ से परिचित है वो खाई के बारे मै जानते ही होगे | वैसे मैंने कभी नापी नहीं है लेकिन २ मंजिल गहरी तो होगी |बरसात से दिनों मै खाई में आस पास के गड्ढो में पानी भर जाया करता था लेकिन तब भी खेले बिना नहीं मानते थे | हर ओवर में कई बार गेंद गंदे पानी में जाया करती थी, उसी पानी में से निकाल कर खेल लिया करते थे | अब शायद नहीं खेल सकते है उस अंदाज़ में | सबसे ज्यादा मनोरंजक चीज होती थी खाई से गेंद पार करना| फिर गेंद ढूँढने में जो दिक्कत होती थी पूछिए मत | सब लोग एक एक दो दो रूपये मिला कर कॉर्क की गेंद ख़रीदे करते थे |
बागराज की पाल भी एक दूसरी जगह थी जहा बाकायदा पैसो के साथ मैच खेले जाते थे| किले की प्रष्ठभूमि में बना यह मैदान खेलने में काफी बड़ा था | यहाँ भी एक दिक्कत थी, कभी कभी गेंद नीचे खेतो में चली जाती थी | पहले उन खेतो में हम सरसों/चने का साग खाने जाया करते थे | अब तो उस तरफ गया हुआ मुझे एक अरसा हो गया है|
बाघराजकी पाल के नीचे खेतों में आज भी लहलहा रही है सरसों की फसल
ढूंडा, यह भी एक मस्त जगह थी जहा पर बच्चो से लेकर बड़ी उम्र के लोग भी खेला करते थे | यह छोटा सा मैदान तीन तरफ से मकानों से घिरा हुआ एक प्लाट था | भंडारी के घर के पास की जगह जहा हम लकडी के बल्ले से खेला करते थे, हर बार गेंद किसी न किसी के घर में जाया करती थी, तुंरत भाग लिया करते थे, फिर मोहल्ले के लड़के लाया करते थे उन घरो से गेंद | यहाँ पर कभी कभी रावण का पुतला भी जलाया करते थे| अब शायद ही उस गली में कोई रावण का पुतला बनता एवं जलाता होगा |
१२ वी कक्षा के बाद कभी कभी भुखमारियो की बावडी पर भी खेला करते थे| वैसे बहुत जगह खेले है लेकिन यह सब जगह ऐसी है जहा मै सबसे ज्यादा खेला हू | यह कुछ पुरानी यादें है राजगढ़ के साथ जुडी हुई जो कभी भूली नहीं जा सकती है
बहुत समय बाद हिंदी में लिख रहा हू| कोई त्रुटी हो भाषा के प्रयोग में तो माफ़ी चाहूँगा |
गौरव कुमार
उनमे से एक जगह थी 'खाई' | मेरे ख़याल से जो लोग राजगढ़ से परिचित है वो खाई के बारे मै जानते ही होगे | वैसे मैंने कभी नापी नहीं है लेकिन २ मंजिल गहरी तो होगी |बरसात से दिनों मै खाई में आस पास के गड्ढो में पानी भर जाया करता था लेकिन तब भी खेले बिना नहीं मानते थे | हर ओवर में कई बार गेंद गंदे पानी में जाया करती थी, उसी पानी में से निकाल कर खेल लिया करते थे | अब शायद नहीं खेल सकते है उस अंदाज़ में | सबसे ज्यादा मनोरंजक चीज होती थी खाई से गेंद पार करना| फिर गेंद ढूँढने में जो दिक्कत होती थी पूछिए मत | सब लोग एक एक दो दो रूपये मिला कर कॉर्क की गेंद ख़रीदे करते थे |
बागराज की पाल भी एक दूसरी जगह थी जहा बाकायदा पैसो के साथ मैच खेले जाते थे| किले की प्रष्ठभूमि में बना यह मैदान खेलने में काफी बड़ा था | यहाँ भी एक दिक्कत थी, कभी कभी गेंद नीचे खेतो में चली जाती थी | पहले उन खेतो में हम सरसों/चने का साग खाने जाया करते थे | अब तो उस तरफ गया हुआ मुझे एक अरसा हो गया है|
बाघराजकी पाल के नीचे खेतों में आज भी लहलहा रही है सरसों की फसल
ढूंडा, यह भी एक मस्त जगह थी जहा पर बच्चो से लेकर बड़ी उम्र के लोग भी खेला करते थे | यह छोटा सा मैदान तीन तरफ से मकानों से घिरा हुआ एक प्लाट था | भंडारी के घर के पास की जगह जहा हम लकडी के बल्ले से खेला करते थे, हर बार गेंद किसी न किसी के घर में जाया करती थी, तुंरत भाग लिया करते थे, फिर मोहल्ले के लड़के लाया करते थे उन घरो से गेंद | यहाँ पर कभी कभी रावण का पुतला भी जलाया करते थे| अब शायद ही उस गली में कोई रावण का पुतला बनता एवं जलाता होगा |
१२ वी कक्षा के बाद कभी कभी भुखमारियो की बावडी पर भी खेला करते थे| वैसे बहुत जगह खेले है लेकिन यह सब जगह ऐसी है जहा मै सबसे ज्यादा खेला हू | यह कुछ पुरानी यादें है राजगढ़ के साथ जुडी हुई जो कभी भूली नहीं जा सकती है
बहुत समय बाद हिंदी में लिख रहा हू| कोई त्रुटी हो भाषा के प्रयोग में तो माफ़ी चाहूँगा |
गौरव कुमार
Monday, May 11, 2009
राजगढ़ मेरा घर .......
राजगढ़ के बारे मे बहुत कुछ बात करने का मौका राजीव भाई ने ब्लॉग पर उपलब्ध कराया है , सबसे पहले उस के लिये राजीव का धन्यवाद ....... क्या है राजगढ़ ..एक नगरी या उससे भी आगे ओर कुछ....इस परिचय के बाद आप खुद निर्णय करे
राजाओ का गढ़ राजगढ़ ,बचपन से राजगढ़ की यही परिभाषा और मंदिर, बंदर, बाग -बावडी यही परिचय सुनते और सुनाते आये है .पहाडियों के बीच मे बसा, चारदीवारी और पुरानी खाई से घिरा राजगढ़ .... नींबू,केरी और हरी सब्जीयों वाला राजगढ़, कालीन की नगरी ( क्या आप को पता है की राजगढ़ से कालीन निर्यात भी होते है ) जयपुर की ही तरह गोविन्ददेवजी की नगरी, पुरी की ही तरह भगवान जगदीशजी की सात दिन की पवित्र रथ यात्रा मे रंगने वाला राजगढ़ , शानदार नगर स्थापत्य का नमूना, जहा हर गली मुख्य सड़क से मिलती है और जहां बारिश का पानी कुछ सेकंड से ज्यादा नहीं रुकता और जहां विशाल किला आज भी अपनी कहानी अपनी बुलंदी से खुद ही बयाँ कर रहा है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी पंडित भवानी सहायजी की नगरी, एकात्म मानववाद के प्रवर्तक पंडित दीनदयालजी की पाठशाला, लुपिन लैबरोटरी के मालिक देशबंधु गुप्ता और भारत के सबसे बुजुर्ग हबीब मिया ( जन्म दिन May 28, 1870 ,निधन 19 अगस्त 2008 ) की जन्मस्थली ... अनगिनत आंदोलनों की जन्मभूमि . .........यही है राजगढ़ ...छोटा सा परिचय है राजगढ़ का (जितना मुझे याद आ रहा है ,कुछ भूल रहा हूं तो आप उसको राजगढ़ के परिचय मे जोड़ कर परिचय को आगे बढाये )....."घर" के बारे मे आज बस यही, आज गौरव की अनुभूति ले बाकी बात बाद में.
प्रशांत गुप्ता
राजाओ का गढ़ राजगढ़ ,बचपन से राजगढ़ की यही परिभाषा और मंदिर, बंदर, बाग -बावडी यही परिचय सुनते और सुनाते आये है .पहाडियों के बीच मे बसा, चारदीवारी और पुरानी खाई से घिरा राजगढ़ .... नींबू,केरी और हरी सब्जीयों वाला राजगढ़, कालीन की नगरी ( क्या आप को पता है की राजगढ़ से कालीन निर्यात भी होते है ) जयपुर की ही तरह गोविन्ददेवजी की नगरी, पुरी की ही तरह भगवान जगदीशजी की सात दिन की पवित्र रथ यात्रा मे रंगने वाला राजगढ़ , शानदार नगर स्थापत्य का नमूना, जहा हर गली मुख्य सड़क से मिलती है और जहां बारिश का पानी कुछ सेकंड से ज्यादा नहीं रुकता और जहां विशाल किला आज भी अपनी कहानी अपनी बुलंदी से खुद ही बयाँ कर रहा है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी पंडित भवानी सहायजी की नगरी, एकात्म मानववाद के प्रवर्तक पंडित दीनदयालजी की पाठशाला, लुपिन लैबरोटरी के मालिक देशबंधु गुप्ता और भारत के सबसे बुजुर्ग हबीब मिया ( जन्म दिन May 28, 1870 ,निधन 19 अगस्त 2008 ) की जन्मस्थली ... अनगिनत आंदोलनों की जन्मभूमि . .........यही है राजगढ़ ...छोटा सा परिचय है राजगढ़ का (जितना मुझे याद आ रहा है ,कुछ भूल रहा हूं तो आप उसको राजगढ़ के परिचय मे जोड़ कर परिचय को आगे बढाये )....."घर" के बारे मे आज बस यही, आज गौरव की अनुभूति ले बाकी बात बाद में.
प्रशांत गुप्ता
Sunday, May 3, 2009
हमारा राजगढ
दोस्तों
अपने राजगढ शहर में क्या कुछ हो रहा है।
बस यही जानने और बताने के लिए शुरू किया है यह ब्लॉग।
उम्मीद है आप सभी का सहयोग मिलेगा
राजीव जैन
अपने राजगढ शहर में क्या कुछ हो रहा है।
बस यही जानने और बताने के लिए शुरू किया है यह ब्लॉग।
उम्मीद है आप सभी का सहयोग मिलेगा
राजीव जैन
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